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हिमाचल में बेसहारा भटकते मनोरोगियों के लिए इन्साफ की लड़ाई में प्रशासन और पुलिस कर रही हाई कोर्ट के आदेशों की अवमानना

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शिमला- भारत अभी भी नागरिकों को सही मायने में साक्षर बनाने में बहुत पिछड़ा हुआ है! सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छुपी नहीं है! सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ना और लिखना तो सीख जाते हैं पर सही मायने में साक्षर नागरिक नहीं बना पाते! कान्वेंट और निजी स्कूल बच्चों को करियर ओरिएंटेड ( Career Oriented) ही बना पाते हैँ! पर इन स्कूलों की भरी-भरकम फीस भी आम आदमी की पहुँच से दूर होती जा रही हैँ! गैर सरकारी संस्थाओ और कुछ सामाजिक कार्यकर्तों को छोड़ कर आम आदमी का रूझान सामाजिक कार्यों की ओर बहुत कम देखने को मिलता है! एक नागरिक का सही अर्थों में साक्षर होना समाज के लिए वरदान साबित हो सकता है! और शिमला के रहने वाले एक संवेदनशील नागरिक, सुभाष कुमार (43), इसी बात का प्रमाण हैँ!

हाल ही में शिमला की एक गैर सरकारी संस्था ने हिमाचल की सड़कों पर घूमते, बेघर, और बेसहारा मानसिक रोगियों का संवेदनशील मुद्दा उठाया! जिला प्रशाशन और पुलिस पर यह आरोप लगा की ऐसे लोगों के बारें में जानकारी मिलने पर भी कोई कदम नहीं उठाया जाता! प्रशाशन व पुलिस दोनों ही अपना पल्ला झाड़ने की कोशिश करते पाए गए ! संस्था ने एक प्रेस वार्ता में यंहा तक कहा की उपायुक्त और पुलिस अधीक्षकों ने संविधान के मानसिक शवस्थ्य अधिनियम, 1987 की जानकारी होने से इंकार कर दिया! ऐसे कई वाक्य हैं जहाँ जिला पुलिस को बेसहारा मनोरोगियों की जानकारी दी गयी है परंतु पुलिस को कोई परवाह नहीं है!

इससे सड़कों पर भटकते बेसहारा मनोरोगियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो तो हो ही रहा है पर इसी के साथ यह हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के आदेशों की खुलेआम अवमानना का मामला भी है। प्रशानिक अधिकारी और पुलिस चाहे कुछ भी कहे लेकिन सच कुछ और ही है!

ये पहली बार का वाकया नहीं है! साल 2011 में सुभाष ने इसी मुद्दे को लेकर हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (CWPIL 18/2011) दायर कर पहली बार मनोरोगियों के मौलिक अधिकारों के संरक्षण का अहम् मुद्दा उठाया! सुभाष के जहन में ये बात पहली बार तब उठी जब उन्होंने एक मानसिक रूप से बीमार और बेसहारा वृद्धा को फटे कपड़ों में नाहन बाजार की सड़क पर घूमते देखा! जब सुभाष ने नजदीकी पुलिस चौकी में इसकी इत्तिला देकर इस वृद्धा की मदद की मांग की तो थाना प्रभारी ने ऐसे किसी भी प्रावधान के बारें में जानकारी होने से इंकार कर दिया व उस वृद्धा को बचाने में असमर्थता व्यक्त की!

सुभाष को इस बात पर विश्वाश नहीं हुआ की भारत के संविधान में कंही इन लाचार और अभागे नागरिकों के लिए कोई प्रावधान नहीं है! सुभाष ने सूचना के अधिकार अधिनियम 2005 के तहत प्रशाशन से इन लोगों के बचाव पर पुलिस की भूमिका पर जानकारी मांगी! जवाब में यह स्पष्ट शब्दों में कहा गया था कि मानसिक स्वस्थ्य अधिनियम 1987 के अध्याय 4, अनुभाग 23 के तहत कोई भी थाना प्रभारी ऐसे लोगों को अपनी सुरक्षा में लेकर न्यायालय में पेश कर सकता है व उसके बाद न्यायालय आगे की करवाई के आदेश दे सकता है !

जवाब पाते ही सुभाष ने हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्या न्यायाधीश को एक भावुक परंतु तथ्यों पर आधारित एक पत्र लिखा और कहा,

हम हमेशा लोगों के कल्याण (welfare) की, विकास, नौकरीयों और जीने के लिए बेहतर वातवरण की मांग करते हैं ! सब अपनी मांगों को लेकर एक लंबी कतार में खड़े हैँ ! इन्ही सब लोगों के बीच जो अपने हक के लिए लड़ रहे हैं कुछ ऐसे भी अभागे हैं जो अपने अधिकारों के लिए खुद नहीं लड़ सकते क्योंकि मानसिक रूप से वे इस काबिल ही नहीं के ये समझ सकें की मौलिक अधिकार क्या चीज़ है या ” वेलफेयर” (welfare) का क्या अर्थ है !

हमे अक्सर मानसिक बीमारियों से ग्रस्त ऐसे लोग सड़कों पर अमानवीय हालात में, कई बार अर्धनग्न अवस्था में, कूड़े से खाना ढूंढते और फुटपाथ पर सोते मिलते हैं जिनका कोई सहारा नहीं ! मैंने एसी ही एक वृद्धा के संरक्षण हेतु पुलिस के पास पहुंचा लेकिन पुलिस अधिकारी ने ऐसी किसी भी जिम्मेदारी होने की बात से इनकार किये जिसके तहत ऐसे मनोरोगियों को बचाया जा सके!

इस याचिका में सुभाष ने न्यायालय से इन मनोरोगियों के लिए न्याय की मांग उठाई! इसी याचिका (CWPIL 18/2011) का संज्ञान लेते हुए उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति राजीव शर्मा और न्यायमूर्ति त्रिलोक सिंह चौहान की खंडपीठ ने 4 जून 2015 को अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला सुनाया और प्रदेश के सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987 के अनुछेद 23 के पालन को सख्त निर्देश दिए!

कोर्ट ने सभी जिलों के पुलिस अधीक्षकों को कहा कि अनुछेद 23 के अन्तर्गत हर पुलिस अधीक्षक का दायित्व होगा कि वह अपने ज़िले में बेसहारा, इधर-उधर घूमने वाले मनोरोगियों को अपने संरक्षण में लेकर 24 घंटे के भीतर निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश करे। इसके बाद धारा 24 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट मनोरोगी व्यक्ति की चिकित्सा के सन्दर्भ में कानून के अनुसार आदेश जारी कर उपयुक्त कार्यवाही कर सकता है।

उच्च न्यायालय ने याचिका पर दिए गए निर्देशों में यह स्पष्ट शब्दों में लिखा था कि,

मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम 1987 (Mental Health Act,1987) क्लॉज़ (clause) 2 (l) के अंतर्गत मानसिक तौर पर बीमार व्यक्ति का मतलब है वह व्यक्ति जिसे किसी भी तरह के मानसिक रोग के कारण उपचार की जरुरत हो ! क्लॉज़ (clause) 2(q) के अंतर्गत मानसिक रोग से पीड़ित व्यक्ति के इलाज व देखभाल के लिए मनोरोगी अस्पताल या नर्सिंग होम का प्रावधान है ! इन अस्पतालों का मतलब है कि जो या तो सरकार द्वारा बनाये गए हों और जिनके रखरखाव का जिम्मा भी सरकार का हो या ऐसा अस्पताल जो किसी भी व्यक्ति या संस्था द्वारा मानसिक रोगियों के इलाज और देखभाल के लिये बनाया गया हो!

यही मुद्दा साल 2017 में शिमला की एक गैर सरकारी संगठन, उमंग फाउंडेशन, द्वारा भी उठाया गया जिसमे स्नष्टा ने आरोप लगाया कि हिमाचल प्रदेश पुलिस सड़क पर बेसहारा घूमने वाले मनोरोगियों के बारे में प्रदेश हाईकोर्ट के इस आदेश को नकारने में भी नहीं हिचकिचा रही !

सुभाष की याचिका पर दिए इस निर्देश के आधार पर संस्था प्रदेश के मुख्य सचिव वीसी फारका के पास पहुंची जिसे देखने के बाद विवश होकर मुख्य सचिव को यह आश्वाशन देना पड़ा कि राज्य सरकार संविधान, कानून और हाईकोर्ट के आदेशों का कड़ाई से पालन करवाएगी। उन्होंने कहा की बेसहारा घूमने वाले मनोरोगियों के संरक्षण, सुरक्षा, इलाज और पुनर्वास उनकी निजी प्राथमिकता रहेगा।

mentally ill in Himachal Pradesh

सुभाष ने इस बात पर ख़ुशी जाहिर कि है इस संस्था ने इस मुहीम को आगे बढ़ाया है और इन मानसिक रूप से लाचार लोगों के मौलिक अधिकारों कि सुरक्षा के लिए आवाज उठाई है! सुभाष की सभी नागरिकों से भी यही प्राथर्ना है कि जब भी लोग किसी सड़क पर भटकते या फुटपाथ पड़े मनोरोगी को देखें तो नज़दीकी पुलिस थाने में जाकर थाना प्रभारी को इसकी इत्तला देने से न कतरायें क्योंकि पुलिस कानूनी तौर पर ऐसे लोगों का संज्ञान लेने के लिए बाध्य है ! अगर कोई अधिकारी इंकार करे तो उन्हें सिर्फ इस याचिका पर दिए गए उच्च न्यायालय के आदेश कि एक प्रति देने कि जरूरत है ! साथ ही साथ सुभाष का यह भी कहना है कि जादू टोने और भूत प्रेत में फसे सभी लोगों को मनोचिकित्सा की जरूरत है! समय पर इलाज़ न मिलने पर रोगियों की हालात बिगड़ सकती है!  सुभाष का मनना है की वो इस अभियान को और आगे बढ़ाएंगे और ऐसे लोगों की मदद के लिए आगे आते रहेंगे!

उल्लेखनीय है की ऐसे मामलों में इलाज का पूरा खर्च सरकार उठाती है। ठीक होने के बाद मनोरोगी यदि अपने परिवार वालों का पता बताता है तो उसे सरकारी खर्चे पर उसके घर भेजने का भी कानूनी प्रावधान है। यदि ठीक होने के बाद वह किसी कारण से अपने घर नहीं लौट सकता है तो सरकार को उसके पुनर्वास केंद्र में रहने का प्रबंध करना पड़ता है।

संस्था का कहना है कि दुर्भाग्यवश हिमाचल में कुछ अपवादों को छोड़कर बेसहारा मनोरोगियों से संबंधित मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम के प्रावधानों का पालन बिल्कुल नहीं किया जा रहा। संस्था ने कई जिला पुलिस अधीक्षकों को ऐसे मनोरोगियों की जानकारी दी, परंतु पुलिस को कोई परवाह नहीं है। इससे इन बेसहारा मनोरोगियों के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है और यह हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के आदेशों की खुलेआम अवमानना का मामला भी है।

संस्था के अध्यक्ष अजय श्रीवास्तव का कहना है कि न्यायालय के निर्देशों को देखने के बाद मुख्य सचिव ने आश्वासन दिया है की कानूनी प्रावधानों और न्यायालय के आदेशों का पूरी तरह पालन करने के निर्देश जारी किए जा रहे हैं। इनमें पुलिस विभाग के कर्मचारियों और अधिकारियों को संबंधित कानूनों और अदालती फैसलों की जानकारी देना, आम जनता तथा विद्यार्थियों को मनोरोगियों के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए जागरूकता अभियान चलाना, पुलिस थाना स्तर पर स्वयंसेवी संस्थाओं के सहयोग से मनोरोगियों की पहचान करना एवं हर थाने में मनोरोगी से संबंधित मामलों को देखने के लिए एक अधिकारी को दायित्व देना शामिल है।

मानसिक स्वस्थ्य और इससे जुड़ी बिमारियों के बारें में लोगों में जागरूकता न होना बहुत बड़ी चिंता का विषय है! हाल ही में में एक ऐसा मामला सामने आया जिसमे एक भटके हुए मानसिक रोगी को जिला शिमला में कई जगह लोगों के गुस्से का शिकार होना पड़ा और उनके लातों और घूंसों को भी सहन पड़ा! मानसकि रोगों के लक्षण लोगों को डरा सकते हैँ और मानसिक स्वस्थ्य के बारे में जागरूकता न होने के कारण ये रोगी लोगों की गलतफमी का शिकार हो सकते हैँ ! पर असल में एक सभ्य और लोकतान्त्रिक समाज में इस तरह के व्यव्हार से अमानवीय कुछ नहीं हो सकता जिसमे एक मानसिक रूप से लाचार इंसान को अज्ञानता के कारण लोगों का गुस्सा सहन पड़े!

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हिमाचल की तीन ग्राम पंचायतों में 435 एकड़ भूमि पर लगे 76,000 से अधिक सेब के पौधे

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शिमला- डॉ यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी के विस्तार शिक्षा निदेशालय में पहाड़ी कृषि एवं ग्रामीण विकास एजेंसी(हार्प), शिमला द्वारा एक अनुभव-साझाकरण कार्यशाला का आयोजन किया गया।

इस कार्यशाला में जिला किन्नौर के निचार विकास खंड के रूपी, छोटा कम्बा और नाथपा ग्राम पंचायतों के 34 किसानों ने हिस्सा लिया। इस अवसर पर जीएम नाबार्ड डॉ. सुधांशु मिश्रा मुख्य अतिथि रहे जबकि नौणी विवि के अनुसंधान निदेशक डॉ रविंदर शर्मा ने विशिष्ट अतिथि के रूप में शिरकत की।

संस्था के अध्यक्ष डॉ. आर एस रतन ने कहा कि यह कार्यक्रम एकीकृत आदिवासी विकास परियोजना के तहत रूपी, छोटा कम्बा और नाथपा ग्राम पंचायतों में वर्ष 2014 से आयोजित किया जा रहा है। परियोजना को नाबार्ड द्वारा वित्त पोषित किया गया है और इसे हार्प द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।

उन्होंने यह बताया कि यह एक बागवानी आधारित आजीविका कार्यक्रम है जिसे किसानों की भागीदारी से लागू किया गया है। इन तीन ग्राम पंचायतों में 435 एकड़ भूमि पर 76,000 से अधिक सेब के पौधे लगाए गए हैं और 607 परिवार लाभान्वित हुए हैं।

डॉ. सुधांशु मिश्रा ने यह भी कहा कि नाबार्ड हमेशा सामाजिक-आर्थिक उत्थान कार्यक्रमों के संचालन में आगे रहा है। उन्होंने इस कार्यशाला में भाग लेने वाले किसानों से अपने सहयोग से विभिन्न कार्यक्रमों को सफल बनाने का आग्रह किया।

अनुसंधान निदेशक डॉ. रविंदर शर्मा और विस्तार शिक्षा निदेशक डॉ. दिवेंद्र गुप्ता ने नाबार्ड और हार्प के प्रयासों की सराहना की और किसानों को आश्वासन दिया कि विश्वविद्यालय किसानों को तकनीकी रूप से समर्थन देने के लिए हमेशा तैयार है।

डॉ. नरेद्र कुमार ठाकुर ने कहा कि हार्प ने कृषक समुदाय के समन्वय से दुर्गम क्षेत्रों में कठिन परिस्थितियों में काम किया है। इस अवसर पर एक किसान-वैज्ञानिक परिचर्चा का भी आयोजन किया गया जिसमें भाग लेने वाले किसानों के तकनीकी प्रश्नों को संबोधित किया गया।

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हिमाचल सरकार पुलिसकर्मियों का कर रही है शोषण

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पुलिसकर्मियों की डयूटी बेहद सख्त है,कई-कई बार तो चौबीसों घण्टे वर्दी व जूता उनके शरीर में बंधा रहता है।थानों में खाने की व्यवस्था तीन के बजाए दो टाइम ही है,राजधानी शिमला के कुछ थानों के पास अपनी खुद की गाड़ी तक नहीं है,हैड कॉन्स्टेबल से एएसआई बनने के लिए सत्रह से बीस वर्ष भी लग जाते हैं।

शिमला सीटू राज्य कमेटी ने प्रदेश सरकार पर कर्मचारी विरोधी होने का आरोप लगाया है। कमेटी ने यह कहा है कि वह हिमाचल प्रदेश के पुलिसकर्मियों की मांगों का पूर्ण समर्थन करती है। आरोप लगाते हुए सीटू ने कहा है कि प्रदेश सरकार पुलिसकर्मियों का शोषण कर रही है।

राज्य कमेटी ने प्रदेश सरकार से यह मांग की है कि वर्ष 2013 के बाद नियुक्त पुलिसकर्मियों को पहले की भांति 5910 रुपये के बजाए 10300 रुपये संशोधित वेतन लागू किया जाए व उनकी अन्य सभी मांगों को बिना किसी विलंब के पूरा किया जाए।

सीटू प्रदेशाध्यक्ष विजेंद्र मेहरा व महासचिव प्रेम गौतम ने प्रदेश सरकार पर कर्मचारी विरोधी होने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि जेसीसी बैठक में भी कर्मचारियों की प्रमुख मांगों को अनदेखा किया गया है। उन्होंने कहा कि जेसीसी बैठक में पुलिसकर्मियों की मांगों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया है।

सीटू कमेटी ने कहा कि सबसे मुश्किल डयूटी करने वाले व चौबीस घण्टे डयूटी में कार्यरत पुलिसकर्मियों को इस बैठक से मायूसी ही हाथ लगी है। इसी से आक्रोशित होकर पुलिसकर्मी मुख्यमंत्री आवास पहुंचे थे। उनके द्वारा पिछले कुछ दिनों से मैस के खाने के बॉयकॉट से उनकी पीड़ा का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

उन्होंने कहा कि पुलिस कर्मियों के साथ ही सभी सरकारी कर्मचारी नवउदारवादी नीतियों की मार से अछूते नहीं है। कमेटी ने कहा कि पुलिसकर्मियों की डयूटी बेहद सख्त है। कई-कई बार तो चौबीसों घण्टे वर्दी व जूता उनके शरीर में बंधा रहता है।

कमेटी ने यह भी कहा है कि थानों में स्टेशनरी के लिए बेहद कम पैसा है व आईओ को केस की पूरी फ़ाइल का सैंकड़ों रुपये का खर्चा अपनी ही जेब से करना पड़ता है। थानों में खाने की व्यवस्था तीन के बजाए दो टाइम ही है। मैस मनी केवल दो सौ दस रुपये महीना है जबकि मैस में पूरा महीना खाना खाने का खर्चा दो हज़ार रुपये से ज़्यादा आता है। यह प्रति डाइट केवल साढ़े तीन रुपये बनता है, जोकि पुलिस जवानों के साथ घोर मज़ाक है। यह स्थिति मिड डे मील के लिए आबंटित राशि से भी कम है।

उन्होंने कहा कि अंग्रेजों के जमाने के बने बहुत सारे थानों की स्थिति खंडहर की तरह प्रतीत होती है जहां पर कार्यालयों को टाइलें लगाकर तो चमका दिया गया है परन्तु कस्टडी कक्षों,बाथरूमों,बैरकों,स्टोरों,मेस की स्थिति बहुत बुरी है। इन वजहों से भी पुलिस जवान भारी मानसिक तनाव में रहते हैं।

सीटू ने कहा कि पुलिस में स्टाफ कि बहुत कमी है या यूं कह लें कि बेहद कम है व कुल अनुमानित नियुक्तियों की तुलना में आधे जवान ही भर्ती किये गए हैं जबकि प्रदेश की जनसंख्या पहले की तुलना में काफी बढ़ चुकी है यहाँ तक पुलिस के पास रिलीवर भी नहीं है।

आरोप लगाते हुए कमेटी ने कहा कि प्रदेश की राजधानी शिमला के कुछ थानों के पास अपनी खुद की गाड़ी तक नहीं है। वहीं पुलिस कर्मी निरन्तर ओवरटाइम डयूटी करते हैं। इसकी एवज में उन्हें केवल एक महीना ज़्यादा वेतन दिया जाता है। इस से प्रत्येक पुलिसकर्मी को वर्तमान वेतन की तुलना में दस से बारह हज़ार रुपये का नुकसान उठाना पड़ता है। उन्हें लगभग नब्बे साप्ताहिक अवकाश,सेकंड सैटरडे,राष्ट्रीय व त्योहार व अन्य छुट्टियों के मुकाबले में केवल पन्द्रह स्पेशल लीव दी जाती है।

सीटू कमेटी ने यह भी कहा कि वर्ष 2007 में हिमाचल प्रदेश में बने पुलिस एक्ट के पन्द्रह साल बीतने पर भी नियम नहीं बन पाए हैं। इस एक्ट के अनुसार पुलिसकर्मियों को सुविधा तो दी नहीं जाती है परन्तु कर्मियों को दंडित करने के लिए इसके प्रावधान बगैर नियमों के भी लागू किये जा रहे हैं जिसमें एक दिन डयूटी से अनुपस्थित रहने पर तीन दिन का वेतन काटना भी शामिल है। पुलिसकर्मियों की प्रोमोशन में भी कई विसंगतियां हैं व इसका टाइम पीरियड भी बहुत लंबा है। हैड कॉन्स्टेबल से एएसआई बनने के लिए सत्रह से बीस वर्ष भी लग जाते हैं।

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किन्नौर में लापता पर्यटकों में से 2 और के शव बरामद, 2 की तालाश जारी,आभी तक कुल 7 शव बरामद

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शिमला रिकोंगपिओ में 14 अक्तुबर को उत्तरकाशी के हर्षिल से छितकुल की ट्रैकिंग पर निकले 11 पर्यटकों में से लापता चार पर्वतारोहीयों में से दो  पर्वतारोहियों के शवो को आई.टी.बी.पी व पुलिस दल द्वारा पिछले कल सांगला लाया गया था जहां सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र सांगला में दोनों शवों का पोस्टमार्टम किया गया।

यह जानकारी देते हुए उपायुक्त किन्नौर अपूर्व देवगन ने बताया कि इन दोनों की पहचान कर ली गई है जिनमे मे एक उतरकाशी व दूसरा पश्चिम बंगाल से सम्बंधित था।

उन्होंने कहा कि जिला प्रशासन किन्नौर द्वारा आज एक शव वाहन द्वारा उतरकाशी को भेज दिया गया है जहाँ शव को जिला प्रशासन उतरकाशी को सौंपा जाएगा। जब कि दूसरा शव वाहन द्वारा शिमला भेजा गया है जिसे शिमला में मृतक के परिजनों को सौंपा जायेगा।

उपायुक्त अपूर्व देवगन ने बताया कि अभी भी लापता दो  पर्यटकों की तलाश आई.टी.बी.पी के जवानों द्वारा जारी है। उल्लेखनीय है कि गत दिनों उतरकाशी से छितकुल के लिये 11 पर्वतारोही ट्रेकिंग पर निकले थे जो बर्फबारी के कारण लमखंगा दर्रे में फंस गये थे जिसकी सूचना मिलने पर जिला प्रशासन द्वारा सेना के हेलीकॉप्टर व आई.टी.बी.पी के जवानों की सहायता से राहत व बचाव कार्य आरम्भ किया था। सेना व आई.टी.बी.पी के जवानों ने 21 अक्टूबर को दो पर्यटकों को सुरक्षित ढूंढ निकाला था। इसी दौरान उन्हें अलग अलग स्थानों पर पाँच ट्रेकरों के शव ढूंढ निकलने में सफलता मिली थी। जबकि 4 पर्यटक लापता थे जिसमे से राहत व बचाव दल को 22 अक्तुबर को 2 शव ढूढ़ निकालने में सफलता मिली थी। अभी भी दो पर्यटक लापता हैं जिनकी राहत व बचाव दल द्वारा तलाश जारी है।

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