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क्या है बिहार चुनाव के नतीजों के मायने ?
बिहारियों ने, जिन्हें हममें से ज़्यादातर लोग ‘पिछड़े’ और ‘गंवार’ की तरह देखते हैं, नफ़रत और दुर्भावना को नकार दिया है. हममें से अधिकांश लोग इस नफ़रत और दुर्भावना के आगे पस्त हो गए हैं.
यही इन चुनावों का सबसे अहम पहलू है. साम्प्रदायिकता के दम पर चलने वाले रथ की ऐतिहासिक सी लगने वाली अपरिहार्यता अब संदेह में है.
इन चुनावों का दूसरा मतलब यह है कि अब प्रधानमंत्री मोदी कैसे राज करेंगे. बिहार चुनावों में उन्होंने सबसे अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल किया. उन्होंने कहा था कि नीतीश कुमार के डीएनए में कुछ ग़लत है. उन्होंने कहा कि लालू यादव शैतान हैं. उन्होंने कहा कि दो बिहारी और राहुल गांधी मिलकर थ्री इडियट्स हैं.
ऐसी भाषा के बाद मोदी विकास के अपने एजेंडे पर कैसे लौट सकते हैं, यह जानते हुए कि उन्हें बड़े राज्यों के मुख्यमंत्रियों को साथ लेकर चलना होगा. यह देखना दिलचस्प होगा कि जिन्हें मोदी अपना राजनीतिक दुश्मन बना रहे हैं उनके साथ वह कैसे काम करते हैं.
तीसरी बात यह है कि क्या पाकिस्तान में पटाख़े फोड़े जा रहे हैं. बिहार चुनावों में जिस तरह का प्रचार देखने को मिला उसके उदाहरण हमारी राष्ट्रीय राजनीति में कम ही मिलते हैं.
हम सभी इस बात के आदी हैं कि अब तक देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी रही कांग्रेस किस तरह से अपने स्वार्थ के लिए धर्म का इस्तेमाल करती रही हैं. लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तरह की ज़हर बुझी और कड़वी बातें कही है उसका दुष्प्रभाव लंबे समय तक हमारे तानेबाने पर बना रहेगा.
आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि मोदी और शाह ने चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह का ज़हर बोया है उसके बाद चीज़ें फिर बेहद आसानी से सामान्य हो जाएंगी. ऐसा नहीं होगा और भारत को इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी.
हमने 1992 में (बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद) ये देखा है और हमें फिर इसक़ी क़ीमत चुकाने के लिए तैयार रहना चाहिए.
इन चुनावों का चौथा पहलू यह है कि भाजपा के लिए यह हार (यह देखना भी दिलचस्प होगा कि कितने लोग इसे लालू-नीतीश की जीत के बजए मोदी की हार क़रार देते हैं ) उसके सहयोगी दलों को मुखर बनाएगी.
भाजपा को नीचा दिखाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ने वाली शिवसेना ने भी कहा है कि प्रधानमंत्री ने एक राज्य के चुनावों में अपनी गरिमा गिराई है. शिवसेना ने कहा है कि मोदी को संयम दिखाने की ज़रूरत थी. शिवसेना की बातों से असहमत होना मुश्किल है.
पांचवीं बात यह है कि रविवार को लाल कृष्ण आडवाणी का 87वां जन्मदिन था. उन्हें एक शानदार तोहफ़ा दिया गया. मोदी ने तीन ट्वीट करके उन्हें अपना सबसे अच्छा शिक्षक, और निस्वार्थ सेवा का सबसे बड़ा प्रतीक बताया. लेकिन मेरा मतलब इस तोहफ़े से नहीं है. आडवाणी एक बार फिर उस पार्टी में प्रासंगिक बनने की तैयारी में हैं जिसे उन्होंने खड़ा किया है.
भाजपा में फ़िलहाल जो नेता मोदी के पूर्ण रूप से पार्टी और सरकार पर क़ब्ज़े के कारण पूरी तरह हाशिए पर चले गए हैं वे अब उनकी छत्रछाया से बाहर निकल आएंगे.
गृहमंत्री राजनाथ सिंह, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और बाक़ी नेता जो दो साल पहले तक ख़ुद को मोदी के बराबर का मानते थे, मोदी के लिए अब उन्हें सिर्फ़ हाथ के इशारे से नियंत्रण करना आसान नहीं होगा.
ऐसे नेता अब अपनी उपस्थिति ज़ाहिर करने पर ज़ोर लगाएंगे और विद्रोह का बिगुल भले ही खुले तौर पर न बजे लेकिन कहानियां लीक होनी शुरू होंगी. शत्रुघ्न सिन्हा जैसे छुटभैये नेता भी खुलकर सामने आने लगे हैं. प्रधानमंत्री का ख़ौफ़ कम होना शुरू हो गया है और अब यह उन पर निर्भर करता है कि वह फिर कैसे अपनी प्रभुसत्ता क़ायम करते हैं.
छठी बात यह है कि बिहार चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति पर नकारात्मक असर होगा. संसद में काम बाधित होगा और संजीवनी प्राप्त कांग्रेस संसद में और अधिक आक्रामक रुख़ दिखाएगी. भाजपा के हर मुद्दे को विपक्ष ख़ारिज करते रहेगा.
इन चुनावों का सातवां निहितार्थ यह है कि कभी विश्वसनीय माने जाने वाले अधिकांश एग्जि़ट पोल ग़लत साबित हुए हैं. चाणक्य ने भाजपा के लिए 150 सीटों की भविष्यवाणी की थी लेकिन उसका एग्जि़ट पोल ग़लत निकला. लगभग 75000 नमूने लेने वाले एनडीटीवी का सर्वे भी ग़लत साबित हुआ. यह संख्या उल्लेखनीय है क्योंकि अमरीकी राष्ट्रपति चुनावों में क़रीब 9000 का सैंपल लिया जाता है.
आठवां पहलू यह है कि जिस तरह परिणाम घोषित किए गए उससे मीडिया की कमज़ोरी सामने आ गई है. ख़ासकर जिस लापरवाह तरीक़े से विश्लेषकों ने डेटा पर अपनी राय रखी. शुरुआती रुझानों के आधार पर ही भाजपा की लहर बता दी गई.
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पोस्टल बैलट से आए मध्य वर्ग के मत भाजपा के पक्ष में गए. इससे भाजपा की ज़र्बदस्त जीत का अनुमान लगाया गया और शेखर गुप्ता जैसे वरिष्ठ पत्रकार समेत कई लोग यहां तक कह गए कि नीतीश कुमार ने कुछ भारी ग़लती की है.
नौवां पहलू यह है कि हिंदुत्व और चुनावी राजनीति में इसकी भूमिका पर भाजपा और आरएसएस के अंदर बहस होगी. हिंदुत्ववादी ताक़तों को आडंबर में महारत हासिल है. हमें जल्दी ही मीडिया में उनके हमदर्दों से यह सुनने को मिल जाएगा कि यह व्यापक आंदोलन किस तरफ़ बढ़ रहा है ज़्यादा दुर्भावना और रोष की तरफ़ या फिर असली राष्ट्रीय हित की ओर.
दसवां निहितार्थ यह है कि जम्मू और कश्मीर के मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद कहते रहे हैं कि कम से कम अगले एक दशक तक राष्ट्रीय राजनीति में मोदी का कोई विकल्प नहीं है.
यह दलील दी जा सकती है कि वो ऐसा इसलिए कहते हैं कि जिस गठबंधन की वह अगुवाई कर रहे हैं उसमें भाजपा शामिल है लेकिन मेरा मानना है कि वह सही हैं. जो उनकी बात से सहमत नहीं हैं या इसे पसंद नहीं करते हैं उन्हें भी इस सच्चाई के साथ रहना पड़ेगा कि अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी हार के बाद भी मोदी इस समय देश के सबसे विश्वसनीय, ऊर्जावान और प्रतिभाशाली राजनेता हैं.
मोदी को अब अपनी हार को एक तरफ़ रखकर जल्द ही इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि उनकी सरकार के एजेंडा पर सबसे महत्वपूर्ण चीज़ें क्या हैं.
सिर्फ़ उम्मीद ही की जा सकती है चाहे बेकार ही सही कि मोदी सरकार के एजेंडा पर अब ये नहीं होगा कि हम क्या खाते हैं और हमारी आस्था क्या है.
(लेखक एमनेस्टी इंटरनेशनल के कार्यकारी निदेशक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)
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हिमाचल विधान सभा चुनाव 2022 में प्रदेश के राजनीतिक परिवेश पर एक नज़र
लेखक: डॉ देवेन्द्र शर्मा -असिस्टेंट प्रोफेसर, राजनीति शास्त्र, राजकीय महाविद्यालय चायल कोटी, जिला शिमला हिमाचल प्रदेश
शिमला- नवम्बर 2022 को 68 सदस्यीय हिमाचल प्रदेश विधानसभा के चुनाव होने तय है। यह चुनाव भारतीय राजनीति और वस्तुत: हिमाचल की राजनीति के लिए कई मायनों में महत्वपूर्ण माने जा रहे है।
जिस तरह से पिछले कुछ सालों में भारतीय राजनीति का स्वरूप बदला है, इसका प्रभाव हिमाचल की राजनीति पर भी नज़र आ रहा है। पश्चिमी हिमालय राज्य पिछले 50 वर्षो में मैदानी उथल पुथल से दूर शांतिपूर्ण, सौहार्दपूर्ण और बड़े मैदानी राजनीतिक टकरावों से बचकर अपने आर्थिक, सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति करता रहा है। आज पहाड़ी प्रदेश की शांत राजनीति पर मैदान की उथल पुथल का प्रभाव नजर आ रहा है।
अत्यंत भौगौलिक विभिद्ता होते हुए भी यहां के लोग मिलजुल कर साथ रहते है, चाहे उनमें कितना ही भाषाई, जातीय, क्षेत्रीय भेद हो लेकिन धरातल पर उसे स्थापित शक्ति व्यवस्था के द्वारा मिटा दिया जाता है। हर चुनाव में हिमाचल के स्थानीय आर्थिक, सामाजिक और क्षेत्रीय मुद्दे ही मतदाता की पसंद नापसंद को तय करते है, जिनका देश की राजनीति से कम ही लेना देना होता है। मगर इस बार के चुनाव में स्थापित राजनीतिक दल अपनी मौलिक क्षमता एवं अनुभूतियों से ऊपर उठ कर नए मूल्यों पर चुनाव लडने की कोशिश कर रहे है। इस संदर्भ में हाल ही में किए गए एक चुनावी सर्वेक्षण के आधार पर कुछ परिकल्पनाओ को प्रस्तुत कर रहा हूं, जिन्हे चुनाव के उपरांत ही सत्यापित किया जा सकता है।
पहला; हिंदी पट्टी की राजनीति का असर इस बार के विधानसभा चुनाव पर पड़ने के आसार है। जहां उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड में विपक्षी दलों के बड़े विरोध के बावजूद, भाजपा ने धार्मिक ध्रुवीकरण के सहारे बहुसंख्यकों में विश्वास जगाकर चुनावों में बड़ी जीत हासिल की, इसका प्रभाव हिमाचल पर भी डालने की कोशिश की जा रही है। भाजपा “रिवाज़ बदलेंगे” का नारा लेकर चुनावी मैदान में उतर रही है और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं अन्य वैचारिक संगठनों के जरिए बहुसंख्यकों को लामबंद करने की कोशिश की जा रही है।
दूसरा; कांग्रेस में आंतरिक कलह बढ़ती जा रही है। एक तरफ राहुल गांधी ’भारत जोड़ो यात्रा’ की जरिए संविधानिक मूल्यों को बचाने का प्रयास कर रहे है और भाजपा का देश में विकल्प बनने की कोशिश कर रहे है, दूसरी तरफ आए दिन कांग्रेस छोड़कर पार्टी के लोग भाजपा में शामिल हो रहे है, जिसका प्रभाव प्रदेश की कांग्रेस की शक्ति पर भी पड़ेगा। कांग्रेस इस चुनाव को ,”हिमाचलियत एवं बीरभद्र सिंह विकास मॉडल” पर लडने की कोशिश कर रही है, और भाजपा मोदी की छवि एवं कार्यों को राज्य में अपने लिए कवच की तरह इस्तेमाल कर रहीं है। कांग्रेस पार्टी के भीतर अभी तक भी मुख्यमंत्री के नाम को लेकर संशय बना हुआ है। कई नाम सामने आ रहे है लेकिन कोई ऐसे नेता का नाम सामने नही आ रहा जिसे अखिल हिमाचली के रूप में स्वीकार्यता मिल सके। युवा नेता विक्रमादित्य सिंह में स्वर्गीय राजा वीरभद्र सिंह की विरासत एवं युवा जोश होने की वजह से अखिल हिमाचली नेता बनने की क्षमता है, मगर उनके नाम को पार्टी के द्वारा मुख्यमंत्री के लिए बढ़ाया नहीं जा रहा है।
तीसरा; भाजपा के विजयी रथ के रास्ते में राज्य में कई प्रभावी मुश्किलें सामने आ रही है, जिसने ’पुरानी पेंशन बहाली की मांग’ जिसे भाजपा ने सैधान्तिक रूप से नकार दिया है, और कांग्रेस ने सत्ता में आने के दस दिनों में बहाल करने की गारंटी दी है। बागवानों को सेब के उचित दाम न मिलने, कार्टन के दामों में अप्रयाशित वृद्धि और विपणन का उचित प्रबंध न होने पर बागवानों का विरोध भाजपा के लिए ऊपरी हिमाचल के सेब बहुल इलाकों में चिंता का सबब बन सकता है।
महंगाई के लगातार बढ़ने से ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रो में भाजपा के खिलाफ विरोधी लहर पैदा हो रही है। सबसे बढ़कर भाजपा पार्टी की अंतर्कलह है जिसका खामियाजा पार्टी को बड़े नुकसान से भुकतना पड़ सकता है। धूमल गुट बनाम जयराम गुट का संघर्ष चुनाव नजदीक आते आते सतह पर नजर आने लगा है। भाजपा के समर्थकों में भी उत्साह कम नजर आ रहा है, क्योंकि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के शासन को राजा वीरभद्र सिंह एवं प्रेम कुमार धूमल के करिश्माई व्यक्तित्व से तुलना करने पर और प्रशासन एवं पार्टी पर नियंत्रण के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान शासन को विफल घोषित किया जा रहा है।
चौथा; देश में कांग्रेस के कमजोर होने से जिसमे भाजपा और विशेषतया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ’कांग्रेस मुक्त भारत’ के अभियान एवं किसी भी तरीके से कांग्रेस के नेताओ को भाजपा में शामिल होने से भाजपा का भी कांग्रेसीकरण हो रहा है क्योंकि सभी कांग्रेस के नेता भाजपा में जाकर प्रमुख पदो पे बैठ रहे है और भाजपा का कार्यकर्ता अनदेखी का शिकार हो रहा है। मगर दूसरी तरफ विपक्ष के सामने भी बड़ी चुनौती खड़ी हो रही है, भाजपा कांग्रेस मुक्त देश के साथ साथ विपक्ष मुक्त भारत भी करना चाह रही है। भाजपा को रोकने के लिए क्षेत्रीय दल अपने राज्यों में अपना खोया हुआ आधार खोजने की कोशिश कर रहे है, जिसका असर देश की राजनीति में भी असर नजर आ रहा है। जहां देश में लोगो के मन में टीना (देयर इस नो ऑल्टरनेटिव) की बात ठूंस ठूंस कर डाली जा रही थी, आज कई चेहरों को विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। हिमाचल प्रदेश में भी पारंपरिक दो दल ( भाजपा और कांग्रेस) के अलावा भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी और आम आदमी पार्टी अपनी दखल इस बार चुनाव में दे रहे है। एक तरफ इन दलों के उभार से मतदाताओं को तीसरा विकल्प मिल रहा है, वहीं दूसरी तरफ इन दलों के प्रभाव से स्थापित दलों का गणित भी बिगड़ रहा है। आम आदमी पार्टी पंजाब से सटे क्षेत्रों में प्रयास कर रही है, और कम्यूनिस्ट पार्टी ठियोग विधान सभा क्षेत्र पर तो पहले से ही काबिज है, मगर इस बार के चुनाव में कई अन्य विधानसभा क्षेत्रों में भी मजबूत दावेदारी प्रस्तुत कर रही है।
पांचवा; आगामी चुनाव में हाशिए पर रहने वाले वर्ग भी अपनी प्रभावकारी भूमिका निभाने वाले है। एक तरफ वर्तमान सरकार की कई लोकलुभावन नीतियां खासकर महिलाओं को आकर्षित करने वाली जिसमें जन धन योजना, उज्जवला योजना जैसी योजनाओं से महिला मतदाताओं को लुभाने की कोशिश कर रही है। वही कांग्रेस भी अपने गारंटी पत्र में महिलाओं को कई लुभावनी योजनाओं की गारंटी दे रही है। दलित वर्ग भाजपा से इतर होता जा रहा है जिसके लिए भाजपा की कई घोषणाओं और नीतियों को जिम्मेवार ठहराया जा रहा है। हाल ही में गिरिपार हटी समुदाय को जनजातीय क्षेत्र का दर्जा देने से दलितों और अन्य पिछड़े वर्गो में डर एवं संशय का माहौल बना है। और दूसरा सरकार द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार संशोधन बिल 2021 विधान सभा में प्रस्तुत करने की वजह से भी दलित वर्ग काफी नाराज़ नजर आ रहा है, जिसका असर चुनाव में नजर आना अवश्यंभावी है।
छटा,; इस चुनाव में तथाकथित भ्रष्टाचार के आरोपो जिसमे हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में पिछले वर्षो में हुई शिक्षको एवं गैर शिक्षको की भर्ती प्रक्रिया में बड़ी अनियमितताओं के आरोप वर्तमान सरकार पर लग रहे है। इस विषय पर शिमला स्थित नागरिक समाज का समूह “फोरम अगेंस्ट करप्शन” ने मीडिया में भर्ती प्रक्रिया में हुए बड़े घोटालों का पर्दाफाश किया है। इस से उच्च शिक्षा से जुड़े मतदाताओं में वर्तमान सरकार के विरुद्ध माहौल बन सकता है।
अतः इन सभी पूर्वाभासो पर आगामी चुनाव को भूतकाल में हिमाचल में हुए विधानसभा चुनावो से थोड़ा हट कर आंकलन करने की जरूरत है। और कई पारंपरिक मुद्दो एवं मूल्यों से अलग इस बार के चुनाव नए मूल्यों को स्थापित कर सकते है।
Disclaimer: इस लेख में लिखे गए सभी विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं।
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आजादी के अमृतमहोत्सव से गायब है पांगना (मंडी) के अनाम स्वतंत्रता सेनानी नरसिंह दत्त की कहानी
ऐसे ही एक शख्स थे पांगना गांव के नरसिंह दत्त (चिन्गु) और अन्य नेतृत्वकारी नरसिंह दत्त (भाऊ लिडर) के दोस्त थे। नरसिंह दत्त के छोटे बेटे ज्ञानचंद (45) ने बताया कि उनके पिता हमेशा राजा के खिलाफ विद्रोह में लगे रहते थे। उन्होंने प्रजा मंडल के आंदोलन के संबंध में बिलासपुर, सुंदरनगर, सिरमौर, रामपुर बुशहर आदि जगहों पर यात्राएं की थी। राजा ने एक बार उनको सुंदरनगर कैद में भी रखा था। स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण खुद यशवंत सिंह परमार ने उनको नौकरी दी थी। वह व्यक्तिगत रूप से उनको जानते थे।
शिमला-भारत सरकार आजादी के 75 वर्ष पूरे होने पर पूरे देश में साल भर के लिए आजादी का अमृतमहोत्सव मना रही है। जगह-जगह लाखों रूपये खर्च कर के भव्य कार्यक्रम किये जा रहे हैं। लेकिन इन कार्यक्रमों के बीच स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों, उनके परिवारों और स्वतंत्रता सेनानियों की सूची में नाम लिखवाने से रह गए अनाम सैनिकों की कोई पूछ-परख नहीं हो रही है।
हिमाचल प्रदेश के मंडी जिला की करसोग, पांगना, निहरी जैसी तहसील, उप तहसिलों में हजारों की संख्या में सुकेत राजा के खिलाफ लोगों ने 1948 में विद्रोह किया था। उस में भाग लेने वाले 4000 हजार के करीब लोगों का ब्योरा सरकार के पास नहीं है। अगर कोई शोधार्थी, परिजन, समाजसेवी खोज कर स्वतंत्रता सेनानियों के नाम सूची में जुड़वाना चाहे तो इसकी भी जानकारी नहीं है।
सुकेत रियासत पर लंबे समय तक सामंती राजाओं का शासन था। लिखित इतिहास के तथ्यों को देखें तो 1862 से 1948 तक लगातार पांगणा, करसोग च्वासी, मण्डी हिमाचल की जनता ने राजाओं के जुल्मों के खिलाफ विद्रोह किया था। 1948 में हिमाचल के पहले मुख्यमंत्री रहे यशवंत सिंह परमार के प्रत्यक्ष नेतृत्व में राजा लक्ष्मण सेन के खिलाफ विद्रोह किया गया था।
सुकेत इतिहास के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार जगदीश शर्मा बताते हैं कि पांगणा पर जब सत्याग्रहियों द्वारा कब्जा किया गया था तो यहां पर 4000 के करीब सत्याग्रहियों ने 19 फरवरी 1948 से 22 फरवरी 1948 तक प्रातः तीन दिन तक पांगणा में डेरा जमाया था। इस दौरान भारी बारिश हो रही थी तथा अगले निर्देशों तक पागंणा में रुकने की सलाह गृह मंत्री से मिली थी। पांगणा वासियों ने, महिलाओं ने सभी सत्याग्रहियों के लिए पांगणा में रहने, खाने और सोने का प्रबंध किया था। इस इलाके के सैकड़ों लोग सत्याग्रहियों की सेवा में शामिल थे।
ऐसे ही एक शख्स थे पांगना गांव के नरसिंह दत्त (चिन्गु) और अन्य नेतृत्वकारी नरसिंह दत्त (भाऊ लिडर) के दोस्त थे। नरसिंह दत्त के छोटे बेटे ज्ञानचंद (45) ने बताया कि उनके पिता हमेशा राजा के खिलाफ विद्रोह में लगे रहते थे। वह घर पर भी कम ही रहते थे। उन्होंने प्रजा मंडल के आंदोलन के संबंध में बिलासपुर, सुंदरनगर, सिरमौर, रामपुर बुशहर आदि जगहों पर यात्राएं की थी। राजा ने एक बार उनको सुंदरनगर कैद में भी रखा था। बिलासपुर के उनके साथ आंदोलन में रहे लोगों से जब हम मिले तो उन्होंने भी इसकी तस्दीक की थी।
वर्तमान में नरसिंह दत्त के परिवार में उनकी बड़ी बेटी मीना (60), टेक चंद (50) और ज्ञान चंद (45) जीवीत हैं। उनका कहना है कि सरकार बहुत सारे कार्यक्रम आजादी के लिए करती है लेकिन उनके पिता जो लगातार आजादी के लिए लड़ते रहे उनका नाम तक स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों की सूची में नहीं है।
ज्ञान चंद ने हमें हिमाचल सरकार द्वारा उनके पिता को जारी किया गया होमगार्ड का कार्ड दिखाया, जिसमें नरसिंह दत्त का जन्म 1927 लिखा हुआ है। उनके पिता का नाम कृष्ण दत्त था। बटालियन नंबर 956 में उनको 1965 में नौकरी दी गई थी। उनका कहना है कि स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण खुद यशवंत सिंह परमार ने उनको नौकरी दी थी। वह व्यक्तिगत रूप से उनको जानते थे।
नरसिंह दत्त उर्फ चिन्गु के सितम्बर 1947 में लिपटी राम सहित रियासत मण्डी से शिमला भागकर भूमिगत होने का वर्णन हिमाचल भाषा, कला संस्कृति अकादमी द्वारा प्रकाशित स्मृतियाँ नामक किताब के 49 पृष्ठ पर भी दर्ज है। लेकिन इसके बाद इस परिवार को पूर्व सरकार की तरफ से कोई सहायता नहीं दी गई है।
स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सैनिकों पर शोध कर रहे मनदीप कुमार का कहना है कि करसोग और पांगना में ऐसे लोग सैकड़ों की संख्या में हैं, जिनका नाम सूची में नहीं जुड़ पाया है। ऐसे लोगों पर खोज होनी चाहिए और स्थानीय प्रशासन को इसके लिए सहयोग देना चाहिए।
हिमाचल प्रदेश भाषा कला और संस्कृति विभाग को इस की तरफ विशेष जोर देना चाहिए। बहुत सारे लोगों ने सूची में अपने नाम नहीं लिखवाए हैं। इस के कारणों का विश्लेषण करते हुए जगदीश शर्मा कहते हैं कि उस समय लोग अनपढ़ थे। सरकार और पुलिस अगर किसी का नाम, कागज पत्र मांगती थी तो लोग इस बात से डरते थे कि कहीं किसी मामले में जेल न हो जाए। इस लिए बहुत सारे लोगों ने जो विद्रोह में थे अपने नाम सरकार के पास नहीं भेजे। अभी सरकार को ऐसे लोगों का संज्ञान लेना चाहिए और सुकेत विद्रोह की याद में प्रशासन को चाहिए कि वह पांगना, करसोग, सुंदरनगर, मण्डी आदि क्षेत्रों में सर्वेक्षण करवाए और ऐसे लोगों के परिवारों को सम्मानित करें।
लेखक: गगनदीप सिंह, एक लेखक, स्वतंत्र पत्रकार, शोधकर्ता, अनुवादक और डॉक्यूमेंटरी मेकर (Documentary maker)
अस्वीकरण: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं। हिमाचल वाचर इस लेख से जुडी किसी भी जानकारी की सटीकता, पूर्णता, उपयुक्तता या वैधता के लिए ज़िम्मेदार नहीं है। सभी जानकारी यथास्थिति के आधार पर प्रदान की जाती है। लेख में दी गई जानकारी, तथ्य या राय हिमाचल वाचर के विचारों को नहीं दर्शाती है और हिमाचल वाचर इसके लिए कोई जिम्मेदारी या दायित्व नहीं लेता है।
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केदार सिंह जिंदान हत्याकांड- ताकि और न कोई जिंदान उभरे
शिमला-हिमाचल प्रदेश के बहुचर्चित केदार सिंह जिंदान हत्याकांड में आखिरकार 44 गवाहों की गवाही के बाद विशेष न्यायाधीश सिरमौर आरके चौधरी की अदालत ने तीन दोषियों को सजा सुना दी है। तीन साल पहले दलित नेता और आरटीआई एक्टिविस्ट केदार सिंह जिंदान को तथाकथित उच्च जाति के दबंगों ने सिरमौर जिला के बकरास गांव में क्रूरता के साथ पीट-पीट कर मार डाला था और सबूत को छुपाने के लिए उसको एक्सीडेंट में तब्दील कर दिया था। लाश को सड़क पर डाल कर उस पर एसयूवी चढ़ाई गई और बुरी तरह से कुचल दिया था। यह केवल जातीय उत्पीड़न का मामला नहीं था बल्कि यह मामला दलितों में बढ़ती चेतना और कोई केदार न उभरने देने का भी प्रयास था।
जिला न्यायवादी बीएन शांडिल ने यह जानकारी देते हुए बताया है कि यह मामला वर्ष 2018 का है। 07 सितंबर 2018 को मृतक केदार सिंह जिंदान, रघुवीर सिंह व जगदीश बीआरसी दफ्तर से बाहर निकले। इसी दौरान दोषी पाए गए जय प्रकाश उप प्रधान ग्राम पंचायत बकरास, कर्म सिंह उर्फ काकू व गोपाल सिंह सड़क पर पहले से ही खड़े थे। इसी बीच जय प्रकाश व कर्म सिंह उर्फ काकू स्कार्पियो गाड़ी से उतर कर नैन सिंह को मिले। दोनों ने नैन सिंह से हाथ मिलाया। वहीं बातचीत में नैन सिंह को ऐसा लगा कि केदार सिंह को मारने की योजना बनाई गई है।
करीब दोपहर 12 बजे जब मृतक केदार सिंह जिंदान, रघुवीर सिंह व जगदीश चंद कार्यालय से बाहर निकले, तो सड़क पर आरोपी जयप्रकाश ने मृतक केदार सिंह जिंदान को सड़क पर आने को लेकर आवाज लगाई। मृतक केदार सिंह जिंदान नीचे सड़क पर चला गया। वहीं रघुवीर सिंह व जगदीश चंद भी बीआरसी दफ्तर के बाहर खड़े रहे। नीचे सड़क पर आरोपी जय प्रकाश की काले रंग की स्कार्पियो पहले से ही खड़ी थी। जैसे ही मृतक केदार सिंह जिंदान गाड़ी के नजदीक पहुंचा, तो जय प्रकाश ने मृतक केदार सिंह जिंदान को गाड़ी के बोनट के पास चलने को कहा, तो वहां आरोपी गोपाल सिंह व कर्म सिंह उर्फ काकू भी खड़े हो गए।
जिसके बाद तीनों में बहस शुरू हो गई। इसी दौरान तीनों आरोपियों ने स्कार्पियो से डंडे निकालकर केदार सिंह जिंदान से मारपीट शुरू कर दी। इस मारपीट में मृतक केदार सिंह सड़क पर गिर गया। जब वह उठने की कोशिश कर रहा था, तो आरोपी जयप्रकाश एक लोहे का गाडर उठा कर लाया और मृतक केदार सिंह जिंदान के सिर पर 4-5 बार वार किया। फिर आरोपी जयप्रकाश ने गाड़ी को स्टार्ट किया। आरोपी कर्म सिंह उर्फ काकू व गोपाल सिंह ने मृतक केदार सिंह जिंदान को उठाकर गाड़ी के आगे सड़क पर रखा और आरोपी जय प्रकाश ने एक बार स्कॉर्पियो को मृतक केदार सिंह जिंदान के शरीर के ऊपर से आगे, फिर पीछे किया।
इसके बाद गाड़ी को शरीर के ऊपर से सीधा आगे ले जाकर मृतक के शरीर से करीब 160 फुट आगे खड़ा कर दिया। उसके उपरांत उसने गाड़ी की बाईं साइड के पिछले टायर के ब्रेक आयल पाइप को तोड़ दिया, ताकि पुलिस को संशय बने कि यह हत्या नहीं बल्कि सड़क दुर्घटना हुई है। इस दौरान आरोपी जयप्रकाश गाड़ी से उतरा, तो कर्म सिंह उर्फ काकू व गोपाल सिंह ने आरोपी जय प्रकाश को बताया कि जगदीश ऊपर से देख रहा है।
इसके बाद आरोपी जयप्रकाश ने ऊपर जगदीश को देख कर कहा कि तू क्या देख रहा है, शाम तक तेरा भी यही हाल करेंगे। इसी मामले में अभियोग पक्ष ने विशेष अदालत में 44 गवाह पेश किए और बचाव पक्ष ने दो गवाह पेश किए। लिहाजा अदालत में तीनों दोषियों को सजा सुनाई।
केदार सिंह जिंदान की हत्या के मामले में आरोपी जय प्रकाश को आईपीसी की धारा 302 सहित एससी व एसटी एक्ट की धारा 3(2) के तहत दोषी करार देते हुए उम्र कैद की सजा व एक लाख रुपए जुर्माना अदा करने की सजा सुनाई गई है। जुर्माना अदा न करने की सूरत में दोषी को एक वर्ष का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा। दोषी जय प्रकाश को धारा 201 के तहत 5 वर्ष का कारावास व 25 हजार रुपए जुर्माना अदा करने के भी आदेश अदालत ने जारी किए हैं। जुर्माना अदा न करने की सूरत में दोषी को एक वर्ष का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा।
इसी मामले में एक अन्य आरोपी गोपाल सिंह को भी आईपीसी की धारा 302 व एससीएसी एक्ट की धारा 3(2)(वी) के तहत उम्र कैद व 50,000 रुपए जुर्माना अदा करने की की सजा सुनाई गई है। वहीं जुर्माना अदा न करने की सूरत में एक वर्ष का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा। जबकि आईपीसी की धारा 201 के तहत पांच वर्ष का कारावास व 25000 रुपये जुर्माना अदा करना होगा। वहीं जुर्माना अदा न कर पाने की सूरत में एक वर्ष का अतिरिक्त कारावास भुगतना में होगा।
इसके अलावा जिंदान हत्याकांड में आरोपी कर्म सिंह को आईपीसी की धारा 323 के तहत एक वर्ष का कठोर कारावास व एक हजार रुपए जुर्माने की सजा सुनाई गई है। जुर्माना अदा न करने की सूरत में एक महीने का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा और धारा 325 के तहत तीन वर्ष का कारावास व 5000 रुपये जुर्माना अदा करना होगा। वहीं जुर्माना अदा न कर पाने की सूरत में एक महीने का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा। इसके अलावा धारा 201 के तहत एक वर्ष का कारावास व 5000 रुपये जुर्माना अदा करना होगा। जुर्माना अदा न करने की सूरत में एक महीने का अतिरिक्त कारावास भुगतना होगा।
कौन थे केदार सिंह जिंदान और क्या बनी मौत की वजह
केदार सिंह जिंदान एक जिंदादिल और क्रांतिकारी इंसान थे। उसने सदियों से दबी-कुचली जनता पर हो रहे जुल्मों का विरोध करना शुरू कर दिया था। उसने अपने गांव ही नहीं पूरे इलाके में तथाकथित उच्च के उत्पीड़न का विरोध किया, लोगों को संगठित करना शुरू किया और लोगों में उम्मीद जगानी शुरू कर दी थी। उसने जातीय भेदभाव को समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाहों का समर्थन किया। महिला और बच्चों की समग्लिंग का पर्दाफाश किया।
उन्होंने अमीर लोगों द्वारा बीपीएल सूची में नाम दर्ज कर गरीबों का हक मारने के खिलाफ आरटीआई फाईल कर खुलासा किया। उन्होंने पढ़-लिख वकालत की और अपने लोगों के केस लड़ने शुरू किये। एक तरह से कहा जाए तो वह गरीब-दलितों के नेता बनकर उभरने लगे थे। और केवल दिखावए और चापलूस नेता नहीं बल्कि एक जुझारू लड़ाकू नेता के तौर पर उन्होंने संघर्ष किया। जो उनकी मौत का कारण बनी वह जून 2018 की घटना है।
उन्होंने शिमला के अंदर प्रैस कॉन्फ्रेंस की और तथाकथित उच्च जाति के दबंग अमीर लोगों द्वारा बीपीएल श्रेणी में नाम दर्ज करवा कर गरीबों का हक मारने का पर्दाफाश किया। केदार सिंह जिंदान द्वारा की गई प्रैस कॉन्फ्रेंस का विडियो देखें। उन्होंने साफ तौर पर बताया कि किस तरह से उप प्रधान (गांव का उप सरपंच) जय प्रकाश (जिसने बाद में जिंदान की हत्या की) ने अपने परिजनों के बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) में नाम दर्ज करवा रखे थे, इस का फायदा उनको नौकरियों में हुआ है और उनके पास एसयूवी, महिंद्रा, अल्टो गाड़ियां है और कई जगह घर है। आरटीआई से हुए इस खुलासे से पूरे इलाके के दबंग घबरा गए थे और स्थानीय उत्पीड़ित लोगों में लड़ने का हौंसला आने लगा था। लेकिन यह उनकी मौत का कारण बना।
विभिन्न सामाजिक संगठनों द्वारा की गई जांच रिपोर्ट के अनुसार 44 वर्षीय केदार का जन्म सिरमौर जिला के ब्लाक शिलाई, ग्राम पंचायत गुनडाह, गांव पाब में स्वर्गीय रतन सिंह के घर हुआ था। उनका परिवार अनूसूचित जाति (कौली) से संबंध रखता है। सिरमौर जिले में कौली लगभग भूमिहीन दलित है जो पारंपरिक रूप से हरकारे सहित ब्रह्मणों और राजपूतों के खेतों में बेगार और बंधुआ मजदूरी का काम करते थे। अभी भी जिंदान के भाई राजपूतों की आज्ञा से उनको 5000 रुपये और बकरी देकर शामलात जमीन पर थोड़ी बहुत खेती करते हैं।
एक जमीनी झगड़े में जिंदान ने अपने बाप को जवानी में ही खो दिया था। उच्च जाति के दबंगों के उकसावे में दलितों में आपसी झगड़ा हुआ जिस में उनकी मौत हो गई थी। जिंदान ने 2010 में शिलाई थाने में जब एफआईआर दर्ज करवाई थी तो ये मामला उठाया था। जब गांव के प्राथमिक स्कूल में उन्होंने ठेके पर रखे अध्यापक के घोटाले का पर्दाफाश किया तो उन्होंने लिखवाया था कि उसको उच्च जाति के लोगों से खतरा है जिसमें लाईन थी – “हमने तुम्हारे बाप को तुम्हारे कौली परिवारों से ही मरवाया लेकिन तुम्हें हम अपने हाथों से ही मारेंगे।”
केदार ने नवोदय विद्यालय से पढ़ाई पूरी की और फिर कानून की डिग्री हासिल की थी। उन्होंने नौजवान छात्रों को शिक्षित-प्रशिक्षित करने के लिए एक शैक्षिक अकादमी की शुरुआत भी की थी। इस दौरान वह कोली समाज की आवाज बनकर उभरा था। वह अखिल भारतीय कौली महासभा का उप अध्यक्ष और हरिजन लीग का पदाधिकारी भी बना। उसने बहुजन समाज पार्टी की टिकट से एक बार चुनाव भी लड़ा था। वह लगातार आरटीआई कार्यकर्ता के तौर पर इलाके के विकास कार्यों में होने वाली धांधलियों और भ्रष्टाचार का पर्दाफाश कर रहा था। यही कारण था कि वह पूरे इलाके के दबंगों के आंख की किरकिरी बन गया था।
ध्यान देने वाली बात यह है कि वह लगातार पुलिस और प्रशासन के संपर्क में था और उनके पास गुहार लगा रहा था। लेकिन उसकी किसी ने नहीं सुनी। इस से पहले नवंबर 2017 में भी शिलाई गांव के पास जिंदान पर हमला हुआ था। उनको बस से उतार कर लगभग 50 लोगों ने उनसे बुरी तरह मारपीट की थी। वह उसको मरा समझ कर छोड़ कर चले गए थे। पीटने के बाद जब वह लहूलुहान होकर बेहोश हो गया था, तो उनके ऊपर कई तसले मिट्टी के डाल दिये गये थे। इस मामले को जिंदान ने राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के समक्ष उठाया था। इसकी जांच के आदेश हुए। इसके बाद जिंदान ने जो प्रैस कॉन्फ्रेंस की थी उसमें उन्होंने 30 लोगों के नाम दिये थे, जिनसे उनको खतरा था। उनमें से एक नाम उनकी हत्या के दोषी पाए गए जयप्रकाश का भी था।
तीन केश जो उनकी जान के दुश्मन बने वह ये थे- आरटीआई के खुलासे के बाद उनके गांव के अनुबंधित अध्यापक को बरखास्त किया गया। उन्होंने 2014 में दवरा, और 2017 में मनाली गांव में अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया और जिस कारण उन पर दिसंबर 2017 का हमला भी हुआ। तीसरा बीपीएल योजना का दुरुपयोग कर बकरास पंचायत में फायदा उठाने वालों का पर्दाफाश जिस कारण उनकी 07 दिसंबर को हत्या हुई।
फैसले का स्वागत
जिंदान की हत्या से चिंतित मानव अधिकार कार्यकर्ताओं व पर्यवारणवादियों द्वारा सबसे पहले की गई तथ्य अनवेषण रिपोर्ट (The Moment of Reckoning) और इसकी सदस्य रही हिमधरा क्लेक्टिव की मानशी असेर ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा है कि संविधान दिवस पर ये खबर मिलना कि केदार सिंह जिन्दान के कातिलों को सज़ा सुनाई गयी सभी न्याय के पक्षधरों के लिए ख़ुशी की बात है।
यह फैसला ऐतिहासिक है क्योंकि हिमाचल राज्य में सरकारी आंकड़ों के अनुसार जातीय उत्पीड़न में सजा की दर मात्र 09% है। तीन साल में इस तरह का फैसला न्यायालय से आना जहां दोषियों को उम्र कैद की सज़ा सुनाई जाए ये अपने आप में बड़ी बात है। इस केस में कोर्ट और पुलिस दोनों की ही भूमिका सराहनीय थी पर इसमें सबसे बड़ी जीत उन सभी लोगों की है जो लगातार न्याय के लिए संघर्षरत रहे। चाहे वो जिन्दान के परिवारजन हों या उनके साथ खड़े संगठन।
केदार सिंह जिन्दान ने जो मुद्दे उठाये और जिस मुहिम के चलते अपनी जान गवाई, यह उसकी भी जीत है। हिमाचल में जातिगत भेद भाव और हिंसा का मुद्दा आज भी काफी हद तक नजरअंदाज किया जाता है। अभी भी और बहुत सारे सामाजिक प्रयासों की जरूरत है। राज्य में अनूसूचित जाति आयोग और मानव अधिकार आयोग दोनों को मज़बूत करने का काम सरकार को करना चाहिए। परन्तु उससे बड़ा काम है सामाजिक मानसिकता को बदलने का, ताकि हमारे संवैधानिक मूल्यों पर हम खरे उतर सकें।
सामाजिक-आर्थिक समानता का जन अभियान की तरफ से सुखदेव विश्वप्रेमी ने फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि जिंदान की हत्या से पूरा समाज दुखी था। इस की लड़ाई में, कोर्ट से लेकर सड़कों तक सभी तरह के संगठनों और सभी तरह के समुदायों का समर्थन हासिल हुआ। आज हिमाचल में तरह-तरह की यात्राओं के नाम पर लोगों को जाति और आरक्षण के नाम पर आपस में लड़ाने की कोशिश की जा रही है। ऐसे लोग मानव अधिकार की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के खिलाफ लोगों को उकसा रहे हैं। ऐसे में जिंदान के दोषियों को सजा देना स्वागत योग्य है और यह पूरे समाज की जीत है।
वहीं अखिल भारतीय कोली समाज ने न्यायालय के फैसले का स्वागत किया है। सिरमौर जिला अध्यक्ष संजय पुंडीर ने जारी एक बयान में बताया कि अखिल भारतीय कोली समाज और अन्य संगठनों ने मिल कर दलित शोषण मुक्ति मंच का गठन किया और लड़ाई लड़ने में निर्णायक भूमिका अदा की। दलित शोषण मुक्ति मंच जिला सिरमौर कमेटी और अनुसूचित जाति वर्ग के सभी संगठनों वाल्मीकि समाज, रविदास समाज, समता सैनिक दल, कबीर पंथी समाज, हरिजन लीग, महिला समिति, छात्र संगठन, मजदूरों और किसानों के संगठन का भी उन्होंने धन्यवाद किया है।
संजय पुंडीर ने बताया की ये माकपा विधायक ने जाति विशेष से ऊपर उठ कर जिन्दान को न्याय दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। जब शिलाई क्षेत्र में जिन्दान के शव को जलाने का विरोध होने लगा, उस समय भी राकेश सिंघा ने स्वयं जिन्दान की पत्नी और बच्चों के साथ जिन्दान के गांव पहुंच कर जाति विशेष से ऊपर उठ कर जिन्दान के गाँव मे ही दाह संस्कार करवा कर दलित समुदाय के अन्दर से भय के माहौल को खत्म किया था। संजय पुंडीर ने कहा कि हम उन सभी संगठनों का धन्यवाद करते है जिन्होंने इस लड़ाई में जाति से ऊपर मानवता को माना और इस शोषण के खिलाफ जंग में साथ दिया।
दलित शोषण मुक्ति मंच के अशिष ने बातचीत करते हुए कहा कि हमारे संगठन ने इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया था। हमारा संगठन हर तरह के शोषण के खिलाफ है। चाहे वह सर्वण समाज का हो या फिर दलित समाज का।
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