कला और संस्कृति
हिम रंग महोत्सव-2016- के अन्तिम दिन नाटक “चैनपुर की दास्तान” और लोकनाट्य “होरिंग्फो” का गेयटी में हुआ मंचन
शिमला- आज की अन्तिम प्रस्तुुति में धू्रव शिखर, शिमला द्वारा नाटक “चैनपुर की दास्तान” मंचित किया गया। जिसके लेखक रंजीत कपूर तथा निर्देशक प्रवीण चांदला है। चैनपुर की दास्तान का कथानक उस वक्त का जब देश में बेईमानी थी, रिश्वत खोरी थी और भ्रष्टाचार था। अंग्रेजो की कैद से देश आजाद हुआ। पूरा मुल्क सदियों से पड़ी गुलामी की जंजीरें तोड़-आजादी की सांसे ले रहा था। हर तरफ उमंग और जोश था।
आजादी का जश्न मनाने के बाद देश के नेताओं को महसूस हुआ कि आजादी हासिल कर लेना आसान था लेकिन उसे बनाए रखना बहुत मुश्किल है। सभी रियासतें हिन्दुस्तान में शामिल हो चुकी थी। लेकिन पुरानी बिमारियां, नौकरशाही लेन-देन, रिश्वतखोरी, जमाखोरी की हवा बह रही थी। इन कुरीतियों के खिलाफ कई सख्त कदम उठाए गए, कानून बनाए गए, कई धमकियों दी गई लेकिन सारी बुराईयों से बेखबर एक रियासत ऐसी भी थी जहां लोग बडे प्यार से इन बुराईयों को गले लगाकर चैन की बंसी बजा रहे थे। यह रियासत थी चैनपुर। चैनपुर में क्या हो रहा था, कैसे हुआ, कैसे होगा इन सभी घटनाओं को पिरोकर हास्य व्यंग्य में प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
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“हिम रंग महोत्सव-2016” में दोपहर 3 बजकर 30 मिनट पर देवी दूर्गा संस्कृति क्लब उरनी, किन्नौर द्वारा सुप्रसिद्ध लोकनाट्य “होरिंग्फो” गेयटी सांस्कृतिक परिसर के खुले रंगमंच एम्फी थियेटर में प्रस्तुत किया गया। होरिंग्फो (हिरण-फो) नृत्य जिला किन्नौर के ग्राम उरनी में देवता श्री बद्री नरायण मन्दिर में किया जाता है।
यह नृत्य वैसाखी से 10 दिन पूर्व हर शाम को मन्दिर परिसर में होता है। वैसाखी के दिन यह नृत्य दोपहर के समय देवता श्री बद्री नारायण जी के समक्ष होता है। ग्रामवासी अत्यन्त प्रसन्ता से हर शाम को हिरण-फो नृत्य देखने आते है। यह नृत्य प्राचीन समय से चला आ रहा है। इस नृत्य में एक हिरण, राहुला व लाड़ा होता है।
राहुला विशेषता भूत-प्रेत व शिकारी होते है जो कि हिरण के साथ लड़ते है। दूसरी ओर राहुला स्वयं आपस में लड़कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते है। राहुला जिन्होंने पारम्पिरिक आभूषण पहना है वे परी की भूमिका अदा करते है तथा हिरण के साथ नृत्य करते है। आधुनिकता के इस दौर में भी यह नृत्य आज भी देवता श्री बद्री नारायण जी के मन्दिर परिसर में हिरण-फो नृत्य किया जाता है। ग्रामवारियों ने अपनी इस विरासत को बनाए रखा है ताकि आने वाली पीढ़ी इस नृत्य व संस्कृति का अनुसरण करते हुए इसे सुरक्षित रख सके।
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पहाड़ी (हिमाचली) को राज्य की आधिकारिक भाषा बनाने की फिर उठी मांग, प्रदेश हाई कोर्ट नें जारी किया जनहित याचिका के सन्दर्भ में आदेश
प्रदेश में संस्कृत बोलने वाले सिर्फ 936 लोग, जबकि पहाड़ी बोलने वाले 40 लाख से अधिक लोग, फिर भी पहाड़ी को राज्य में भाषा का दर्जा न देकर संस्कृत को दे दिया गया।
शिमला-प्रदेश सरकार ने संस्कृत को तो दूसरी भाषा घोषित कर दिया लेकिन पहाड़ी को भाषा का दर्जा देने के लिए कोई कदम अभी तक क्यों नहीं उठाया। ये कहना है अर्श धनोटिया का जिन्होंने हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की थी और मांग राखी थी कि पहाड़ी को हिमाचल प्रदेश की आधिकारिक भाषा घोषित किया जाए। याचिका कर्ता के वकील भवानी प्रताप कुठलेरिया नें इस बारे में उन्होंने कई तथ्य कोर्ट के सामने रखे। 2011 की जनगणना के अनुसार हिमाचल प्रदेश में संस्कृत बोलने वाले सिर्फ 936 लोग हैं जबकि पहाड़ी 40 लाख से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है। पर फिर भी पहाड़ी को राज्य में भाषा का दर्जा न देकर संस्कृत को दे दिया गया।
याचिका में नई शिक्षा निति 2020 के तहत पहाड़ी (हिमाचली) और अन्य स्थानीय भाषाओँ को पाठशालाओं में प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम बनाये जाने, 2021 की जनगणना में पहाड़ी (हिमाचली) को अलग श्रेणी में रखने और साथ ही साथ लोगों, खासकर के युवा वर्ग को जागरूकता शिविरों के द्वारा पहाड़ी को प्रोत्साहन देने और उसे राज्य की मातृ भाषा बनाने की मांग रखने के बारे में भी कहा गया। जिसके जवाब में हाई कोर्ट ने इस संधर्भ में सोमवार को आदेश जारी किए हैं।
न्यामूर्ति मुहम्मद रफ़ीक और न्यायमूर्ति सबीना की पीठ ने याचिका का निस्तारण करते हुए कहा “कोर्ट राज्य सरकार को तब तक कोई निर्देश नहीं दे सकते जब तक यह साबित न हो कि पहाड़ी (हिमाचली) की अपनी एक संयुक्त लिपि है और पूरे राज्य में एक ही पहाड़ी बोली प्रचलित है। हालांकि, याचिकाकर्ता को एक सामान्य पहाड़ी (हिमाचली), सामान भाषा के ढांचे और सामान टांकरी लिपि को बढ़ावा देने की दृष्टि से एक शोध करने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार के भाषा कला और संस्कृति विभाग से संपर्क करने की स्वतंत्रता है और यदि याचिकाकर्ता प्रतिवादी-राज्य के पास, भाषा एवं संस्कृति विभाग के अतिरिक्त प्रमुख सचिव के माध्यम से पहुँचता है, तो यह कथित विभाग के ऊपर है कि वह उसका निवारण कानून के हिसाब से करें।”
क्या है पहाड़ी भाषा का मतलब
अर्श धनोटिया का कहना है कि पहाड़ी (हिमाचली), हिमाचल प्रदेश में बोली जाने वाली पश्चिमी पहाड़ी बोली शृंखला के लिए इस्तेमाल होने वाला संयुक्त पारिभाषिक शब्द है तथा इसमें मुख्यतः कांगड़ी, मंडयाली, चम्बयाली, कुल्लवी, म्हासुवी पहाड़ी और सिरमौरी आती है। उसके अनुसार हिमाचल प्रदेश के गठन के समय से ही पहाड़ी (हिमाचली) को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की माँग होती रही है। इसे आधिकारिक तौर पर 37 ऐसी अन्य भाषाओं के साथ सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें अनुसूचित श्रेणी में रखने की पहले से ही माँग है। इसके अलावा, हिमाचल प्रदेश विधानसभा में वर्ष 1970 और 2010 में इस संदर्भ में प्रस्ताव भी पारित किए जा चुके हैं।
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कविता: ज़िंदगी के समंदर में
शिमला|वंदना राणा- हे ईश्वर बनाना नहीं इन्सान धरती पर,
इंसानियत का पाठ उसे अब पढ़ाया न जायेगा।
खिलाना न फूल किसी गुलशन में—
धूल का फूल चरणों में तेरे चढ़ाया न जायेगा।
पैदा होते बच्चों में मत भरना किलकारियां—
सिसकियां ले ले कर उसे हंसाया न जायेगा।
जिंदगी के समंदर में आयी सुनामियां
यहां किनारों में किसी को लाया न जायेगा।
सात सुरों के रंग मत भरना वाणी में —
बंदूक की नोक में उसे सुनाया न जायेगा।
खेत खलिहान धुंधले उजड़े हुए चाँद-सितारे–
गए मौसम बहारो के फिर से उन्हें बुलाया न जायेगा।
उजड़ी है बस्तियां गांव ओ शहरों में , बस भी जायेगी—
उजड़े दिल के आशियानों को बसाया न जायेगा।
वादिये जन्नत में दशहत गर्दों का आलम है–
पत्थरवाजों से सर अपना कहीं बचाया न जायेगा।
ज़मीं आसमां नदियां सागर पंछी पंख पसारे कहते
चलो उड़ चलें इस जहां में अब रहा न जाएगा।
हे ईश्वर! धर्म खातिर हो जाओ उजागर,
इंसा का बहता लहू हमसे देखा न जायेगा—।
जानिए लेखिका वंदना राणा के बारे में
वंदना राणा का जनम हिमाचल प्रदेश के जिला हमीपुर में हुआ और इनकी प्रारंभिक शिक्षा भी यहीं हुई। हमीरपुर कॉलेज से ही इन्होंने एमए हिंदी की है।वंदना ने शिमला से बीएड की डिग्री ली है। वंदना को कुदरत ने बचपन से ही आकर्षित किया है।
वंदना का कहना है कि उनका घर कुदरत की गोद में ही बना था। आसपास घने दरख्त,आम, केले, खट्टे किन्नु और कई फलदार वृक्ष थे। उन पेडों पर पंछियों को देख कर मन बहुत खुश हो जाता था। मैं कुदरत की गोद में बड़ी हुई हूँ। कविता लिखना मैंने कॉलेज के समय में शुरू किया था जो मेरा शौक ही बना गया। मेरे इस शौक को मेरे पति ने और भी निखार दिया और मुझे प्रोत्साहित किया।
रेडियो सुनने का बचपन से ही शौक था,फिर आकाशवाणी शिमला में रचनाये भेजी जो मेरी ही आवाज़ में प्रसारित हुई। जिससे मुझे बहुत खुशी हुई। बाद में हिमाचली बोलियों के कांगड़ी बोली के प्रसारण हेतु मेरा चयन हुआ तो यह लिखने का शौक और परवान चढ़ता गया।अब लिखना मेरा जीवन बन चूका है।
इसी शौक की वजह से मैंने रेडियो राईटिंग और पत्रकारिता में डिप्लोमा किया। जिस तरह बहती नदियां कई उबड़ खाबड़ रास्तों से हो कर गुजरती है उसी तरह मेरी लेखन यात्रा भी निरंतर बहती जा रही है।
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अकादमी के शिखर पुरस्कारों के वितरण में हेरा-फेरी, साल पूरा होने से पहले ही बाटें जा रहे साहित्य पुरस्कार:गुरुदत
शिमला- हिमाचल कला, संस्कृति-भाषा अकादमी के सचिव की ओर से जारी विज्ञप्ति के अनुसार वर्ष 2017 के तीन शिखर सम्मानों के लिए आगामी 26 अगस्त तक उपलब्धियों के विवरण सहित प्रविष्टियां मांगी गई हैं। उल्लेखनीय है कि 2016 के शिखर पुरस्कार गत् मार्च 2017 में दिए गए थे और अब पांच महीने बाद 2017 के पुरस्कार देने की भी तैयारी है, जबकि वर्ष 2017 के अभी चार महीने शेष हैं।
किसी भी वर्ष के पुरस्कारों के लिए प्रविष्टियां वर्ष पूरा होने के बाद ही आमंत्रित की जाती है, क्योंकि साहित्यकार और कलाकार वर्ष के अंत तक नई उपलब्धियां हासिल कर सकते हैं।
हिमाचल सर्वहितकारी संघ के अध्यक्ष एवं साहित्यकार गुरुदत शर्मा ने कहा कि किसी वर्ष के पुरस्कार अग्रिम रूप से देना किसी भी सूरत में नियमानुकूल नहीं कहे जा सकते। इस तरह तो अकादमी आगामी वर्षों के पुरस्कार भी अग्रिम रूप से दे देगी। पुरस्कार देना लाखों की राशि बांटना ही नहीं होता, बल्कि साहित्यकारों-कलाकारों की नियत अवधि के भीतर की रचनात्मक उपलब्धियों का सही मूल्यांकन होना चाहिए।
गुरुदत शर्मा ने कहा कि साहित्य के पिछले शिखर सम्मान को लेकर भी विवाद हुआ था, तब बिना सूचना दिए चुपचाप अकादमी के चंद सदस्यों को बैठाकर ही लाख रुपये के पुरस्कार बांट दिए गए थे।
इस बार अग्रिम रूप से पुरस्कृत करने का सीधा मतलब है कि वर्ष के अंत में होने वाले चुनावों से पहले ही वे पुरस्कार भी बांट देने हैं जो कायदे से वर्ष 2017 की उपलब्धियों का मूल्यांकन करके वर्ष 2018 में दिए जाने चाहिए। अकादमी के अधिकारी शायद ये मानकर चल रहे हैं कि आगे ये सरकार नहीं आएगी, इसलिए अभी अग्रिम मनमानी कर लें।
इस संदर्भ में गुरुदत शर्मा ने कहा कि किसी भी पुरस्कार की प्रविष्टियां मांगने के लिए कोई भी संस्था बाकायदा विज्ञापन जारी करती है, जिसमें नियमों आदि का उल्लेख भी किया जाता है। इस तरह प्रेसनोट जारी करके बेगार टालने का मतलब है कि इस योजना में बहुत जल्दी में पिछली बार की तरह मनमानी की जानी है।
साहित्यकार गुरुदत शर्मा ने कहा कि संसथा की ओर से अकादमी के अध्यक्ष तथा प्रदेश के मुख्यमंत्री को पत्र लिखा गया है कि इस सबसे बड़े पुरस्कार के नियम पहले प्रकाशित करके जाहिर किए जाएं और वर्ष 2017 के पुरस्कार साल पूरा होने पर देने के निर्देश जारी किए जाएं ताकि इस अकादमी की कार्यप्रणाली मजाक न बने।
उन्होंने कहा कि किसी पुरस्कार के लिए प्रकाशित साहित्य का मूल्यांकन जरूरी है। शिखर पुरस्कार के लिए कोई पुस्तकें नहीं मांगी जा रही। इसलिए इसमें मनमानी होने की पूरी संभावना है।
शर्मा ने कहा कि अकादमी के संविधान के अनुसार कार्यकारिणी के अध्यक्ष हिमाचल सरकार के भाषा-संस्कृति सचिव होते हैं लेकिन इस पद को किनारे करके संस्था के सचिव का पद भी नियमानुसार नहीं भरा गया। इसलिए अकादमी में चंद लोगों की मनमानी चल रही है।
उन्होंने कहा कि कम से कम साहित्य एवं कला-संस्कृति के क्षेत्र में तो उचित नियमानुसार काम होना चाहिए। गुरुदत शर्मा ने प्रदेश के साहित्यकारों व कलाकारों से भी अनुरोध किया कि अकादमी में चल रही मनमानी का विरोध करके इसके अनियमित कार्यक्रमों का बहिष्कार करें।
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